Saturday, September 3, 2022

सतगुरू और संत के प्रेम की महिमा

सतगुरू और संत के प्रेम की महिमा

एक बार की बात है। कोई मालिक का प्यारा जो आंखों से अंधा था। चला गर्म रेत के रास्ते, नंगे पांव अपने सतगुरू से मिलने।
संत तो घट-घट की जानते हैं। उन्होेंने देखा कि कोई मेरा प्यारा आंखों से लाचार, गर्म रेत पर चल कर, लंबा रास्ता तय करके मेरे पास मुझे मिलने को आ रहा है।
संत कहां अपने प्यारे का दुख देख सकते हैं।
अपने बाकी शिश्यों से बोले के मैं अपने किसी प्यारे से मिलने जा रहा हूं।
जब सतगुरू अपने उस आंखों से लाचार प्यारे से मिलने पहुंचे, मिल कर बोले- तेरे प्यार के सदके! प्यारे मांग क्या चाहिये।

दास बोला- जी कुछ नहीं।
सतगुरू बोले- तेरा दिल बहुत बड़ा है।
अब दो चीजें मांग।
तब वो दास बोला- सच्चे पातशाह!
मेरी आंखे लौटा दो। ताकी मैं आप के दर्शन कर सकूं।

मालिक ने मेहर की।
दास को दिखाई देने लगा। (क्योंकि कहते हैं ना करता करे ना कर सके गुरू करे सो होये।)
दास ने जी भर दर्शन किये।
 तब सतगुरु ने कहा- अब दूसरी मांग मांगो।
 तो दास रो पड़ा, बोला- सच्चे पातशाह! मेरी ये आंखें वापिस ले लो।
सतगुरू बोले- प्यारे ये तुम क्या मांग रहे हो?
तब दास बोला- सच्चे पातशाह! मैं आप को देख कर कुछ और नहीं देखना चाहता।
सतगुरू जी ने दास को गले लगा लिया।